शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

रेल बजट विशेषांक



                              रेल बजट पर मेरे द्वारा बनाया गया ले आउट 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

कांग्रेसी सियासत का शिकार होती अनाधिकृत कॉलोनियां

हिंदुस्तान में एक नहीं बहुत सी संस्कृतियाँ मौजूद  है. हर १०० किलोमीटर पर भाषा बदल जाती हैं ,यह बिलकुल सच है लेकिन इससे भी बड़ा सत्य इस देश की राजनीति का हैं, दरअसल भाषा के साथ साथ हर १०० किलोमीटर पर राजनीतिक हवा भी बदल जाती हैं. विकास की हवा के साथ सत्ता में पहुचे नीतीश कुमार भले ही जातीय राजनीति को नकार रहे हो लेकिन यह सच हैं जिस तबके ने लगातार दूसरी बार बिहार में नीतीश को सत्ता की चाबी देकर कांग्रेस के राहुल (युवा) कार्ड को नकारते हुए कांग्रेस को मुह के बल गिराया वो ही दिल्ली में कांग्रेस की शीला सरकार को सत्ता का सुख दे रहे  हैं महज यह एक उदहारण है समूचे भारत में ऐसे कई उदहारण मिल जाएँगे जो यह साबित करते है हमारी भारतीय राजनीति में जातीय और मुद्दों के कॉकटेल की मांग बहुत हैं. 
                   
आगामी  दिल्ली नगर निगम चुनाव नजदीक हैं इसलिए दिल्ली की सियासत में हलचल होना लाज़मी हैं. हमेशा की तरह कांग्रेस ने एक बार फिर "अनाधिकृत कॉलोनी" कार्ड खेलना शुरू कर दिया आखिर क्यों न खेले दिल्ली की सियासत को तय करने में इन्ही अनाधिकृत कॉलोनियो की भूमिका रही हैं. शीला सरकार की इस परिसनूमा दिल्ली में आज भी १५०० से ज्यादा अनाधिकृत कालोनिया है जिसमे रोजगार की तलाश में आए बिहार, उत्तर प्रदेश के वे लोग रहते  हैंजिन्होंने नितीश को बिहार में सत्ता दिलवाई. समूचे भारत में भले ही राजनीतिक पार्टिया मुस्लिम, पिछड़े, दलित वोट बैंक को बनाने की कवायद में रहती हो लेकिन राजधानी दिल्ली में इन प्रवासी वोट बैंक की क्या कीमत हैं यह कांग्रेस अच्छे से जानती हैं असल में, कांग्रेस ने इंदिरा गाँधी के समय ७०के दशक में ही इन अनाधिकृत कॉलोनियो को उस दौर में नियमित करके अपने वोट बैंक को बनाया था, गरीबी हटाओ का नारा लगाकर इंदिरा ने इस खास तबके में अच्छी पेठ बनाई थी तब से दिल्ली की राजनीति इन्ही प्रवासियों पर निर्भर रही हैं अब जब पुरे देश भर में कांग्रेस बैकफूट पर हैं कांग्रेस ने इन कॉलोनियो को पास करने की झूठी मुहीम छेड़ दी हैं बाकायदा इस बार कमेटी भी गठित कर दी. वही दसूरी तरफ वेश्या, ब्रहमन के वोट बैंक में उलझी विपक्षी पार्टी भाजपा भी कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में सड़क पर चिल्ला रही हैं  खैर भारतीय राजनीत ऐसे ही चलती है दरअसल दिल्ली की ७०विधान सभा सीटो में से अकेले ३०सीटे इन्ही अनाधिकृत कॉलोनियो में आती है जिसका लाभ हमेशा कांग्रेस को खूब मिलता रहा कांग्रेस ने शुरू से ही आम आदमी का नारा लगाकर विकास की बात कहकर इन (रोजगार की तलाश में आये उत्तर प्रदेश,बिहार) लोगो को बेवकूफ बना कर दिल्ली की सियासत पर कब्ज़ा बनाए रखा.
             
                         यही नहीं २००९ के आम चुनाव के दौरान सोनिया गाँधी ने इन कॉलोनियो को पास करने का लालच देकर प्रोविस्नल कार्ड तक बात डाले थे लेकिन तब से स्तिथि कमोबेश वैसी ही हैं वास्तव में यह कालोनिया शुरू से ही दिल्ली की राजनीति का फैसला करती रही. दिल्ली को परिस बनाने का संकल्प लेने वाली दिल्ली की शीला सरकार की सत्ता का राज यही भोले भाले लोग रहे, ४०साल पहले से बनी ये कॉलोनियो आज भी विकास की राह देख रही हैं लेकिन हर बार चुनाव से पहले इन्हें विकास का झुनझुना पकड़ा दिया जाता हैं देखा जाए तो इन्हें पास(विकास) न करने के पीछे हमारी राजनीतिक व्यवस्था की साजिश रही हैं क्योकि हमारे नेता जानते हैं इन्हें मुख्यधारा की कॉलोनियो से जोड़ने से उनका जनाधार चला जाएगा. भले ही भाजपा का इन तबको में जनधार न रहा हो लेकिन भाजपा ने भी सत्ता में रहते हुए कांग्रेस की ही विकास(पास) न करने की परम्परा को जारी रखा. अब जब निगम में सत्तारूढ़ भाजपा को अपना किला(निगम सचिवालय) छीने जाने का डर सता रहा हैं तो वह भी कांग्रेस की तरह इन कॉलोनियो के लोगो को विकास की काल्पनिक तस्वीर दिखा रही हैं वास्तव में दोनों ही पार्टियों में इस मुद्दों को सुलझाने का राजनीतिक साहस दिखाई नहीं देता लेकिन सबसे ज्यादा जिम्मेदार कांग्रेस रही हैं इनकी राजनीति का अगर कोई शिकार हो रहा है तो ये लोग ही हैं.
                       "गरीबी मिटाओ" से शरू हुआ कांग्रेस का यह सफ़र "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ" तक पहुच गया हैं लेकिन कांग्रेस के इन नारों से इन लोगो की  न गरीबी ख़त्म हुई और न मदद का हाथ इनके पास तक पहुच सका लेकिन इन सबके बीच सियासी सफ़र जारी है.......................... 

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

डीटीसी की नहीं एक अनोखे कर्मचारी की कहानी

"५७साल से आपकी सेवा में" डीटीसी का यह बोर्ड पिछले एक साल से दिल्ली की पेरिसनुमा सड़को से नदारद है,  आधुनिकता की दौड़ में चमचमाती लो फ्लोर बसे दिल्ली का दिल जितने में अभी भी संघर्ष करती नजर आ रही है. सत्तावन सालो से दिल्ली का बोझ ढोती डीटीसी का भले ही मेकअप हो गया हो लेकिन नोनिहाल आज भी ९७के पुराने  समय में जी रहे है, जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्रों का बस पास बनाते बनाते नोनिहाल ने जेएनयू के कई छात्रों को उंचाइयो तक पहुचते हुए देखा है. दिल्ली के सबसे शांत और खूबसूरत इलाके में बसे इस विश्वविद्यालय का प्यार उनके डिपार्टमेंट के प्यार से भी काफी बड़ा हो चूका है, नोनिहाल कहते है जितना डीटीसी ने उन्हें दिया है उससे कही ज्यादा प्यार इस विश्वविद्यालय ने दिया है, वो कहते है यहाँ पूरा भारत दिखाई देता है अलग अलग राज्यों के छात्रों के पास बना कर उन्होंने उनकी भाषा भी सीखी है. नोनिहाल  अपने डिपार्टमेंट से कम तन्खुआ को लेकर नाखुश है लेकिन उन्हें इस बात की ख़ुशी है की उनके साथ के सभी कर्मचारियों का तब्दला दिल्ली के दूरदराज इलाको में  होता रहा है लेकिन उनके जेएनयू  के प्रति प्यार और अपने काम के प्रति लगाव को देखते हुए डीटीसी ने उन्हें यहा से कभी दूर नहीं जाने दिया.
               खटाखट किबोर्ड  पर चलती उंगलिया और २०इन्च के चमकदार रंगीन एलसीडी पर टिकी उनकी निघाए अपनी नौकरी  के सफ़र के पुराने दिनों को याद करती हुए थकती नहीं. सुचना प्रोद्योगिकी के इस युग में नोनिहाल आज भी, पुराने दौर में हाथ से बनाये जाने वाले पास को याद करके विंडो सेवन पर काम करना मज़बूरी बताते है. जेएनयू से पीएचडी कर रहे कलकत्ता के अनुराग गांगुली का कहना है की नोनिहाल जी ही पहले शख्स थे जिनसे वह विश्वविद्यालय में मिले तब से वह खाली समय में इनसे मिलने आते है, इनका व्यवहार घर की याद दिला देता है, छात्र गांगुली  कहते है नोनिहाल अंकल हमेशा से ही पढाई पर ध्यान लगाने की सीख देते है. कुदरत की ख़ूबसूरती को बयां करता यह विश्वविद्यालय जितना अपनी सादगी को लेकर चर्चित है  उतना ही टेफ्लास(रेस्तरो) के साथ बसा डीटीसी  बस पास का यह कार्यालय  नोनिहाल अंकल के लिए चर्चित है.
टेफ्लास के साथ बसा जेएनयू का डीटीसी कार्यालय 
                            दिल्ली के ग्रामीण इलाको को छोड़ भी दे तो, दिल्ली के दिल में बसा सिंधिया हाउस(डीटीसी बस पास मुख्य कार्यालय) के बाहर डीटीसी पास के लिए घंटो इंतजार मे खड़े लोगो कि शिकायत अक्सर कर्मचारियों  के व्यवहार को लेकर रहती है, यकिन न आए तो आसपास के डीटीसी बस पास डिपो में घूम आइए दो तीन बार अगर फॉर्म में खामिया न गिना दे तो आश्चर्यजनक नहीं  होगा असल में यह कर्मचारियों की  परम्परा बन चुकी है लेकिन इस परिपाटी को तोड़ते हुए  "नोनिहाल अंकल" लोगो में सरकारी कर्मचारियों को लेकर बनी छवि को गलत साबित कर रहे है. डीटीसी के खस्ताहाल बस पास कार्यालयों  कि दास्ता दिल्ली के कई पत्रकार चिल्ला चिल्ला कर बता चुके है लेकिन जेएनयू  के इस अनोखे कार्यालय की  कामयाबी मीडिया के कैमेरो में नजर नहीं आती शायद मीडिया के चमचमाते कैमरे "नोनिहाल अंकल" कि सादगी और उनके काम के प्रति लगाव से इसलिए दूर भागते है क्योकि सेटेलाइट के मालिक मौत बेचना पसंद करते है जिंदगी दिखाना नहीं.
                            ५८साल के "नोनिहाल अंकल" अपनी उम्र को लेकर चिंतित नहीं लेकिन डीटीसी से जल्द रिटारमेंट को लेकर दुखी है क्योकि वह चाहते है जेएनयू का साथ उनसे कभी छूठे नहीं, अगली बार जेएनयू जाना हो तो नोनिहाल अंकल से मिलना मत भूलिएगा. यह ५७साल पुरानी  दिल्ली का बोझ ढोती डीटीसी कि कहानी नहीं बल्कि डीटीसी में काम कर रहे अनोखे कर्मचारी की कहानी है. भले ही डीटीसी ने पेरिसनुमा सड़को पर दोड़ने के लिए अपनी सादगी को खो दिया हो लेकिन नोनिहाल अंकल आधुनिकता कि इस दौड़ में बदलना नहीं चाहते.
  
नोट. नोनिहाल अंकल और डीटीसी कार्यालय की फोटो न दिखाए जाने के लिए खेद है, आखिरी समय में मेरे कैमरे ने मेरा साथ छोड़  दिया था.